Monday, February 19, 2018

निकली है सवारी


        














तेरी मूछें थर थर कांपेगी देख नीकली है सवारी
आठ आसमान चुमने के वास्ते हैं आज मैं ने पाँखे फैलाई 
सात सागर में  घुमने को हाथों के चप्पों से नैया चलाई 

खुली जमीन ऊपर,खुले आसमां के नीचे
कोई ऊंचा नहीं था,कोई नीचा नहीं था
खुली जमीं ऊपर,खुले आसमां के नीचे
नीकल आया एक घर
 जिस की नींव में लहु मांस मेरा भरा
मेरे सपनें तूटे,हाथ उलटे बंधें,
चींथडी बन के आकाश जिस के फर्श पे सिमटा
मेरी आंखो की आरपार देख आज नीकली है उस की निशानी
आठ आसमान चुमने के वास्ते हैं आज मैं ने पाँखे फैलाई  
सात सागर में  घुमने को हाथों के चप्पों से नैया चलाई 


अब तो क्षितिज खुली,नयी दुनिया झूली
आज तू भी मानव
और मैं भी मानव
अर्थ मानव का एक ही है – मानव मानव
आज क्षितिज खुली,नयी दुनिया झूली
गुरु वही का वही,शनी वही का वही
किन्तू देखने की रीत आज बिलकुल नयी
पाँव घूमते हुए,हाथ मजबूत हुए
बंध कंठ से मयूर अब गह्कने लगे
सूखी ऊँगलियाँ छलकीं कि टेरों से छूटी सर्जन की सरवानी
आठ आसमान चुमने के वास्ते हैं आज मैं ने पाँखे फैलाई   
सात सागर में  घुमने को हाथों के चप्पों से नैया चलाई 

No comments:

Post a Comment

एक ‘ढ’ गज़ल

तन्हाइयाँ तन्हाइयाँ तन्हाइयाँ हैं यह चौदवें अक्षर से सब रुस्वाइयाँ हैं कैसा बिछाया ज़ाल तू ने अय मनु कि हम ही नहीं पापी यहाँ प...