Monday, February 19, 2018

एक ‘ढ’ गज़ल




तन्हाइयाँ तन्हाइयाँ तन्हाइयाँ हैं
यह चौदवें अक्षर से सब रुस्वाइयाँ हैं

कैसा बिछाया ज़ाल तू ने अय मनु कि
हम ही नहीं पापी यहाँ परछाइयाँ हैं

हम छोड़ ना सकते ना घुलमिल भी सके हैं
दोनों तरफ़ महसूस उन्हें कठिनाइयाँ हैं

कोई हमारी आह् को सुन क्या सकेगा
बजतीं यहाँ चारों तरफ शहनाईयां हैं

मिली



 

नूह् की कश्ती की तरह ज़िन्दगी मिली
जब से सनम मुझे तुम्हारी बन्दगी मिली

राम ने जो खटखटाये हर नगर के द्वार
थरथराती मौत से हैरानगी मिली

घूमता कर्फ्यू मिला है भद्र शहर में
हालात में भद्दी पूरी शर्मिन्दगी मिली

संसद में घूसा शेर भूखा निकला बोल के
नेता के रूप में ये साली गन्दगी मिली


मानिन्द मुसा की तुम्हें चलाता रहूंगा
देखने की दूर तलक दिवानगी मिली

निकले



जितने बाहर हैं उसी से बहुत अन्दर निकलें
मिले जो तेरी नज़र एक  समन्दर निकले

हम बरसते रहें बादल की तरह जी भर के
खेत माना था जिन्हें वो भी तो बंजर निकले

दिखाई देते हैं खिदमत में आज कल उनकी
जुबाँ से राम नहीं सैंकडो खंज़र निकले

मसीहा मान के पूजा था हम ने कल जिन को
वो फ़रिश्ते नहीं इन्सा नहीं बन्दर निकले

पाँव मज़बूत हों कितने ही मगर कल ‘साहिल’
चींटी के जिस्म में से रूहे सिकन्दर निकले

रक्खा है




हम ने सीने में समंदर को छुपा रक्खा है,
एक ज्वाला को कलेजे में दबा रक्खा है.

कितनी पर्तें जमीं हुई हैं और सडन कितनी,
ऐसी एक लाश को क्यूँ सर पे उठा रक्खा है.

हम भटक जायें पहुँच जायेंगे कुछ तो होगा,
चंद राहों से क्यूँ पैरों को बंधा रक्खा है.


आजकल आँखें भी बारूद उगल्तीं हैं बहुत,
हाय अफ़सोस निशाने को बदल रक्खा है.

जो मेरे देश की मिट्टी को बेचते हैं ‘साहिल’,
हम ने उन्हीं को तो गद्दी पे बिठा रक्खा है.

कोई बात बने




मेरी दीवानगी का चर्चा है ठीक मगर,
थोड़े मदहोश तो हो जाओ,कोई बात बने.

सहमते और सिकुडते गुजर गयीं पीढियाँ,
खुद बादल हो फ़ैल जाओ,कोई बात बने.

तुम्हारे साथ ही जुड़ी है जमीं की खुश्बू,
फूल की भांति बिखर जाओ,कोई बात बने.

छूना तो ठीक है,सीने से लगा लेंगे वो,
नगमा बन के भीतर जाओ,कोई बात बने.

ढेर सा डर है,झिझक भी है,झुझलाहट पर,
सितम के सामने हो जाओ,कोई बात बने.

रोटी की भी है खींचातान


















‘माँ मुझे चंदा दे दे’ की तू जिद छोड़ राम,
यंहां रोटी की भी है खींचातान.

बारह बीते हो साल पर ना पानी आये,ऐसे कुंए जैसा घर
इधर उधर हैं लगी मिट्टी की दीवारें,दीमक के लगे हुए स्तर
छत भी है ऐसी की बारिस में पानी का जी भरके करती है दान
‘माँ मुझे चंदा दे दे’ की तू जिद छोड़ राम,
यंहां रोटी की भी है खींचातान

गाडी का पहिया है कैसा बड़ा, ऐसा रूपया था पहले रानी छाप का
घिसघिस के इतना वो छोटा हुआ कि ना पहुँचे पगार तेरे बाप का
राम की तो बातें बहुत ही पुरानी हैं,इस को पढ़सुन के तू मत बन नादान
‘माँ मुझे चंदा दे दे’ की तू जिद छोड़ राम,
यंहां रोटी की भी है खींचातान

बाप तेरा कोई नहीं दसरथ राजा कि नहीं मैं भी अयोध्या की रानी
राम ने तो मांगा हजीरा महारानी का बुध्धू होने की क्या तू ने भी ठानी?
राजा के घर की तू करता है बात पर, घर के हालात को तो जान 
‘माँ मुझे चंदा दे दे’ की तू जिद छोड़ राम,
यंहां रोटी की भी है खींचातान 

नया एक नाम दो




नया एक नाम दो
तुम
मुझे एक नाम दो

गुमराही ने घेर लिया था
गर्दिश में था खोया
गलियों से मैं बिछड़ के यारा
चैन से फिर ना सोया
पाँव सम्हलने लगे हैं मुझ को
तुम नया अंज़ाम दो.
मुझे एक नाम दो.

आम लोगों के आँसू-पीड़ा
और उन के ज़ज्बात
प्यार जमीं का भूल के मैं ने
कहाँ लगाईं आस?
लाल खून की स्याही भर दूँ
फिर
वही पैगाम दो.
तुम
मुझे एक नाम दो.

कोई था बम्मन कोई था बनिया
कोई हरिजन जात
इन्किलाब के ख्वाब ने कैसे
एक किये थे हाथ
नई नस्ल को जोड़ दूँ ऐसे
तुम
वही ईमान दो.
तुम
मुझे एक नाम दो,
नया एक नाम दो.

एक ‘ढ’ गज़ल

तन्हाइयाँ तन्हाइयाँ तन्हाइयाँ हैं यह चौदवें अक्षर से सब रुस्वाइयाँ हैं कैसा बिछाया ज़ाल तू ने अय मनु कि हम ही नहीं पापी यहाँ प...