गुजराती दलित साहित्यकार प्रवीण गढ़वी,चंदु महेरिया और रमण वाघेलाके साथ
साहिल परमार के पहले काव्यसंग्रह 'व्यथापचीसी' (१९८४) की प्रस्तावना में सुप्रसिद्ध दलित कवि नीरव पटेल ने 'दलित कविता की कोख से साहिल जैसे सौ बेटों का जन्म हो' ऐसी शुभकामना व्यक्त की थी,किन्तु कमनसीब से साहिल की उंचाई के सौ तो नहीं,अपितु पूरे पांच कवि भी दलित कविता में आ नहीं पाए हैं.खुद साहिल को ही २००४ में 'मथामण' के काव्यो के जरिए पुनर्जन्म लेना पडा है.
गुजराती साहित्य के अग्रीम
इतिहासकार श्री.धीरुभाई ठाकर को भी साहिल की नोंध लेनी पडी है : "साहिल परमार जैसे
शक्तिशाली कवि सामाजिक हेतु के साथ साथ कविता को भी रिझा सकते हैं.उनकी कविता में
कल्पन.प्रतीक,लयवैविध्य और लोकबोली एवं लोकगीतों की तर्जों का विवेकपूर्ण विनियोग
होता जाता है."
तो दूसरे साहित्य समीक्षक
हर्षद त्रिवेदी के मतानुसार 'साहिल कम भले ही लिखते हों,पर कमतर कभी नहीं लिखते.'
साहिल प्रतिबद्धता के साथ
कलात्मकता के समन्वय में माननेवाले अपवादरूप कवि हैं.'सिर्फ राजकीय सूत्रोच्चार (jargan) से कविता नहीं बनती,वैसे ही सिर्फ आध्यात्मिकता के अंजन से
भी कविता नहीं बनती' ऐसा स्पष्ट मत साहिल का है.'व्यथापचीसी' के stage poet साहिल अपनी ही ईमेज तोड़ने के लिए 'मथामण' में खूब मथे हैं.किन्तु
इससे कवि बिलकुल table poet हो गए हैं,ऐसा भी नहीं है.
साहिल यानी धधकता
आक्रोश.उनकी 'जाओ चूतियों नहीं आयेंगे' रचना ने साहित्य जगत में खलबली मचा दी
थी.दलित कविता में गालियाँ हो सकती हैं? ऐसा विवाद उपस्थित हुआ था.साहिल अहमदाबाद
की चालीओं में यह रचना सुनाते थे.सिर्फ,महाराष्ट्र में ही नामदेव ढसाल पैदा होते
हैं,ऐसा नहीं.गुजराती दलित कविता भी उतने ही आक्रोश से धधकती है.दलित विवेचक
भी.न.वणकर ने साहिल की लहूझान भावानुभूतिसभर दलित वेदना की अभिव्यक्ति की नोंध ली
है.तो दूसरे विवेचक पथिक परमार ने 'दंभ,पाखण्ड,प्रपंच और अंधश्रद्धाओं पर नर्म
मर्म नहीं,आक्रोश-विद्रोहयुक्त कटाक्ष' करते कवि' के रूप में साहिल को सराहा है.
दलित साहित्यके एक अनन्य
अभ्यासी डॉ.भीखु वेगडा के मतानुसार 'साहिल की कविता सामाजिक यंत्रणा,दलित मुक्ति
की मथन,परम्परा विच्छेद,धार्मिक रुढियों के सामने जिहाद जगाती है.जगह जगह
अन्याय,अत्याचार देखकर कवि का दिल हलबला उठता है और वे संघर्ष का आह्वान करते
हैं.साहिल की कविता में जोश,वेदना-व्यथा,आक्रोश और कुछ कर जाने की तमन्ना है.'
'व्यथापचीसी' और 'मथामण'
में से कुछ अछांदस काव्यों का हिन्दी अनुवाद 'प्रहार' लेकर साहिल हिन्दी दलित
कविता विश्व में प्रवेश कर रहे हैं.
' जब मैं पैदा हुआ था
बच्चा नहीं था –
सपना था सपना
हज़ार हज़ार साल से
कुचली गयी मेरी मां ने
खौलते हुए अन्याय के खिलाफ़
देखे हुए
धधकते विद्रोह् का सपना.
साहिल साधारण नाजुक सपना
नहीं है.वह तो है धधकते विद्रोह का सपना.हाँफते हाँफते घर आकर माँ ने क्या पिलाया
था?पानी नहीं,पसीना.
' हाँफते हाँफते
घर आ कर
उसने मुझे पानी नहीं
पसीना पिलाया था पसीना.
जिसे गाँव के चौक
में आने न दिया,अक्षर के पास जाने न दिया,वह अब अक्षर का हथियार लेकर आया है.दलित
कवि के लिए शब्द काव्य का शब्द नहीं,शमशेर का शब्द है. ' उस को तुम ने
गांव के चौपाल के पास फटकने नहीं दिया.
उस को तुम ने अक्षर के पास फटकने नहीं
दिया.
तुम्हारी कृरता के कीचड में फंसकर
छटपटाती हुई मेरी माँ.
तुम्हारे हिंस्त्र साम्राज्य में
पल पल मरती मेरी माँ.
वह खुली हवा में साँस लेगी अब.
धूपमें तपती उस की देह को
नीम की मीठी छांव मिलेगी अब.
तुम्हारा कुआँ उस के पाँव धोएगा अब.
तुम्हारे गांव की चौपाल
उस का राज्यासन बनेगी अब.
तुम्हारे अक्षर
उस के हथियार बनेंगे अब.
कवि खुद तो
विद्रोही हुए,पर बेटी को भी विद्रोही बनाया है
' इसी झोले से मेरी बेटी
मेरी ही तरह उछालेगी
सरमायेदारों के खिलाफ़
गालियाँ .
मैं सिर्फ गालियाँ बोल कर रह गया,
मेरे झोले में
आज बम नहीं है.
जब यह झोला
मेरी बेटी के कन्धों पर जाएगा
होगा उस में
कोई न कोई हथियार
जरुर फेंकेगी वह
मेरे देश को लूटनेवाली
सियासत के खिलाफ़
धधकता बारूद.'
कवि को डर है कि पुरातनपंथी उनकी तेजाबी कलम
छीन लेंगे :
' और इस तरह
किसी
भी तरीके से
छिनना
चाहेंगे तेजाबी कलम'
कवि कबूल करते
हैं कि उन में रहा कबीर जाग चुका है :
' किसी साहिल के
दिल में
कबीर
जाग रहा है'
जैसे कवि अस्तव्यस्त,वैसी
ही अस्तव्यस्त उनकी कविता,sponteneous overflow of
bitter feeelings !
' मेरी कविता
अपने
गंदे कपड़ों में
मेरे
जैसी ही कंगाल
अभी
भी चाहती है स्वीकृति
मेगेझीन
के रेशमी चिकने पन्नों की'
कवि की तरह,कवि
की कविता भी सवर्ण ललित साहित्यकारों के लिये अस्पृश्य !
' मेरी कविता
मेरी
जीभ जैसी ही
अभद्र,असभ्य,
मेरे
जैसी ही
अस्पृश्य
सभ्य
सुसंस्कृत
साफ़सुथरे
समीक्षकों द्वारा
रख
दी गयी बाजु पर
भुलाई
हुई
धक्काई हुई मेरी कविता '
कवि स्त्री की संवेदना की अनुभूति करते हैं :
' तू ही
मेरी
जन्घाओं में
लिपट
कर मजा लेता रहा
और
फ़िर मुझे
नरक
की खान कहा.हाँ, तू ही.
तुझे
मैं
भली
भांती पहचान चुकी हूँ.'
औरत की अक्ल उसकी
पाँव की एडी में,ऐसा कहा जाता है.कवि
स्त्री के मुंह से वह बात उलटकर रखते हैं :
' तेरी बुध्धि तो
मेरे
पाँव की एडी पर है.
अक्लके
कुंद,
तुझे
मैं
भलीभांती
पहचान चुकी हूँ '
पत्नी से संवाद
करते हुए कवि कहते हैं कि ऐसे तो हम रत्न जैसे है,पर तल में रहते हैं इसलिए तिनके
के मोल भी नहीं:
' समंदर के तले दबे हुए
मोती जैसे
या पृथ्वी के तले डटे हुए
हीरे जैसे इन्सान.
फिर भी
सब से तले हैं इसीलिए ही
हम तिनके के मोल भी नहीं
हैं.'
बाबा साहब अम्बेडकर को 'बाप' मानकर कवि कहते
हैं कि हमें छुडाने के तुमने बहुत प्रयास किये,पर ये लोग तो :
'
तू ने जीतोड़ प्रयास किये, मेरे बाप-
अजगर
जैसे
इन
लोगों की चुंगाल से हमें उबारने.
पर
बहुरूपी हैं ये लोग.
अजगर
भी बन सकते हैं
और
अमीबा भी बन सकते हैं ये लोग.
शेर
भी बन सकते हैं
और
सियार भी बन सकते हैं ये लोग.'
किन्तु हमें
छुडाने के बाबा के प्रयास व्यर्थ नहीं गए.ठिठुरा हुआ लहू अब आग हो उठा है :
'
हाथ जोड़ जोड़ कर
हाथ
की रक्तवाहिनियों का
ठिठुरा
हुआ लहू
भड़क
उठा है आज
यह
प्रताप तेरा है.
कवि बाबासाहब को
'सूटधारी संत' कहकर लिखते हैं :
'
सदीयों से बेहद बोज उठाकर
झुकी
हुई गुलाम रीढ़ में
आज
तू ने पैदा की है द्रढ़ता.'
उन्हीं बाबा साहब
की युवा वय में,एक राजा सयाजीराव गायकवाड के लश्कर सचिव होने के बावजूद भी कैसे
हाल हुए उनके ?
'
वो पल-
वो
पल जिस ने
राज्य
के लश्कर सचिव को
पेड़की बिखरी छाँव में
(एकदम
बेबस और बेघर, बेसहारा
एकदम
अवमान के बिच
खुद
के कोई दोष या
अपराध
बिना)
(जो
हाथ संविधान
गढ़नेवाले
थे उन)
हाथों
के बीच मुँह छुपाये
छोटे
बच्चे की तरह
रोता
और बिलखता हुआ देखा होगा.
वो
पल कितने बिलखे होंगे.'
बाबा साहब के इन
ह्रदयविदारक पल में वे जिसके नीचे बैठे थे
उस पेड़ के पत्ते भी बुद्ध बन गए होंगे :
'
उन पलों की सारी पीड़ा
उस
पेड़ के पत्तों को छू गयीं होंगी
और
इसलिए धीरे धीरे
उस
पेड़ के पत्ते सभी
हिंदवा
लिबास छोड़
बुद्ध
हो गए होंगे.
वे
पल कितना
सहमे
होंगे?
सिसके
होंगे?
उबले
होंगे?? '
कवि खुद जिस lower depths में रहते हैं वहाँ कैसे
हैं बच्चे ?
'पटनी शेरी में रहते लडकों की जेबमें
बीड़ी के ठूँठ हैं
और
लड़कियों के कन्धों पर
कागज़
बीनने के झोले हैं.'
नदी पार के लोगों
की कार में पेट्रोल नहीं,इस गरीब बस्ति का पसीना है,ऐसी सरस कल्पना कवि देते हैं :
' उन के पाँव नहीं
मर्सिडीज
और शेवरोलेट हैं
येझदी
और बुलेट हैं
जिन
की टंकियों में पेट्रोल नहीं
तेरा
और मेरा पसीना
ठूंस
कर भरा है.'
गुजराती में कवि
की प्रसिध्ध रचना का तीखापन यहाँ अनुवाद में नरम हुआ है.ज़िंदा पशु के घी-दूध वे
खाएं,और मर जाए तब खींचने को हमें बुलाये ? बुलाये तो भी जैसे हम पर बड़ा उपकार
करते हों ऐसे कहकर कि भेजा और गुल्ली खाना और मज़े करना !
' घी और दूध है
तुम
को खाना
पशु
जीवित हो
तब
तक उस का रसकस पाना
मुर्दा
बचे निकम्मा तब ही
खींचने
को फिर हमें बुलाना
वह
भी जैसे दान किये हो
इतने
तौर से कहते कहते :
'ले
लो चुतियों
ले जाओ इस को
चोखने
भेजा
गुल्ली
खाने
कर
के चानी सेक पकाने
चमड़ा
धो
बाजार
में बेचो
ले
लो चुतियों
ले
जाओ इसको '
पर अब दलितों का
स्वमान जाग ऊठा है.नहीं आयेंगें.तुम ही मुर्दा मांस खाओ और चर्म कुंड में छपा छप
करो !
' चोखना भेजा
खाना
तोकडा
चानी
करके तुम ही खाना
तुम
ही कुंड में छब छब करना
बेचना
चमड़ा
बेच
के पैसा
खूब
कमाना
जाओ
चुतियों नहीं आयेंगे
पशु
उठाने नहीं आयेंगे
खींचने
को हम नहीं आयेंगे.'
चर्म कुंड में अब
चमड़ा नहीं,शब्द पकता है.करघा अब कबीर की तरह शब्द बुनता है :
' अब चमड़ा पकाते हुए हमारे कुण्ड
शब्दों
को भी पकाने लगे हैं.
हमारा
कापड बुनता करघा
शब्दों
को भी बुनने लगा है.
अब
हमारे झाडू
शब्दों
पर पड़ी धूल को
झाड
कर साफ़ करने लगे हैं.'
आनेवाला इतिहास
जो उस
को नहीं समजेंगें उनके मुंह में पिशाब करेगा !
' वरना
आनेवाले
कल का इतिहास
खड़ा
खड़ा
तेरे
मुंह में
पिशाब
की धार करेगा.........'
एलिट क्लास के इंजीनियरींग के विद्यार्थीओं का फ़ूड बिल बढ़ा तो सारे गुजरात में
तहलका मच गया,नवनिर्माण आन्दोलन हुआ.किन्तु दालित पीड़ित की रोजीरोटी जैसी बारह
मिलें बंद हो गई तो कुछ भी न हुआ.कवि अच्छी ईमेज का प्रयोग करते हैं :
'
इस शहर के चाँद के
टुकडें
टूट रहें हैं
एक..दो..चार..दस.....बारह.'
योरप के असर में गुजराती कविता में सर्रियल आन्दोलन चला था,पर उसके विषय थे
अमूर्त.कवि साहिल सर्रियल का उपयोग दलित पीड़ा को व्यक्त करने के लिए करते है.गाँव
का दलित शहर में पढ़ाई करने गया और सिंह बन गया !
'
भूल गया था शहर जा कर
छोरा
वो चमार का साला
‘
सिंह ‘ और ‘कायस्थ’
‘सिंह’
और ‘कायस्थ’
लिखने
लगा
शहर
जा कर
नाम
औरों के रखने लगा
काम
औरों के करने लगा' '
"
आस्मानों में उड़ने लगा
पाब्लो
को पचाने लगा
तालियों
की वो
गडगडाहट
पाने लगा”
'
क़ानून मंत्री हो कर वो तो
संविधान
रचाने लगा
साला
अछूत लिखने लगा
पढ़ने
और पढाने लगा
काम औरों के करने लगा' '
दलित पढ़कर आगे
बढे,साहब बन जाय,तो उनके पीछे क्या क्या बोला जाता है :
'
सलाम सब की ओरसे मिलती
पीठ
पीछे सब कहते ; देखो
इन
सालों को दलित कहेंगें कैसे ?'
' लटकमटक के चलनेवाली
फेशन
कितनी करनेवाली
जोरु
के घरवाले हो गए'
' चमार से अब चक्रवर्ती और
तूरी
में से तीरकर हो गये '
पढ़ लिख कर सवर्ण
जैसे बनने निकले दलित के कैसे हाल होते है :
'
यहाँ वहाँ बस झूलते रहना
दोनों
के बीच लटकते रहेना
दोनों
के बीच पिसते रहना
आगे
कुआं पीछे आग
बीच
में अंधा भागमभाग'
साहिल की 'प्रतिरूपों की खोज' एक नया ही प्रयोग है.कालिदास गर दलित मन की कोख
से जन्मा होता तो कैसी उपमाएं देता?साहिल की इस रचना में देखने को मिलता है.
'
तू खीचड़ी पकाने के लिए
दालचावल
बिनती है
या
आटा पीसने के लिए
गेंहू
बिनती है
इतनी
चौकसी से
मैं
लिखने बैठा हूँ कविता
प्रिय
तेरे लिए.
सोचता
हूँ तेरे चेहरे को
कौनसी
उपमा दूं ?
बहुत
काम आ चुका है चाँद –
अष्टमी
का भी और पूनम का भी.
फूल
भी ताजा नहीं रहा है एक भी.
फ़िर,मुझे
तो ढूँढने हैं ऐसे शब्द
जिसे
तू और मैं पहचानते हों,
जीते
हों
और
इस लिए
मैं
कहूँगा कि
मिर्च
पिसने के दस्ते जैसा
भले
ही लम्बगोल हो तेरा चेहरा
या
फ़िर
किसी
अनाड़ी कारीगर ने
टांक
टांककर ठोंक ठोंक कर
बनाये
हुए खरल जैसा
चेचक
के दाग से भरा भले हो तेरा चेहरा
मैं
इसे चाहता हूँ.
चसोचस
चोखता हूँ.'
'
इसीलिये मैं तेरे दांतों को
अनार
की कलि की उपमा
नहीं
दे सकूंगा.
मैं
तो कहूँगा कि
मक्के
के भुट्टे में
असमान
रूप से चिपके
छोटे
बड़े दानों की तरह है तेरे दाँत.'
'
मैं तो कहूँगा कि
माँ
ने सिगड़ी खाली करते वक्त
एकदम
नीचे से
नीकलती
हुई खाक जैसा है तेरा रंग '
'
मैं तो कहूँगा कि
जाड़ेकी
भोर को
गर्म
गर्म हवा के साथ
उतनी
ही खलबली से
धंसते
हुए
म्यूनिसिपलिटी
के नल के
खुरदरे पानी जैसा
गर्माहट
भरा
और
ताजगीदाता है तेरा प्रेम'
'
हालांकि ऐसा है फ़िर भी
प्रलंब
समागम से जैसे
अकुला
जाती है तू
वैसे
ही मैं भी
अकुला
गया हूँ
यह
कविता लिखते वक्त....'
दूसरी एक रचना
'जीवनसंगिनी से' में भी नवीन उपमा का प्रयोग हुआ है :
'चन्दा
ने झाँक कर घुसकर दरारों से
ताली
पे ताली लगाई थी,याद है ?
भूरे
से बालों सा झूमता हुआ तुम्हें
पहली
उस रात का उजियारा याद है ?'
'बोतल
में लगे हुए ढक्कन सा मैं और
उस
में बाती जैसी तू....'
ऐसा अपनी
प्रिया-पत्नी के लिए कौन लिख सके हिम्मत के साथ ? :
'जंघा
में साँप बन कर डसता हूँ रातभर मैं
मेरे
लिए ये तेरा धिक्कार भी है वाजिब
और एक नवीन
उपमाओं का नवोन्मेष :
'
तू एक बड़ा शहर है,जानम
मैं
छोटा सा गाँव
मर्सीडीज़
की तेज दौड तू
मैं
हूँ बंधे पाँव
देक्ख
रहा हूँ रिश्ते की धूपछाँव.
मैं
हूँ सस्ती महज गरीबी
तू
है महंगी बड़ी करीबी
सागर
जैसा दिल तेरा है
मैं
छोटी सी नाँव
देख
रहा हूँ रिश्ते की धूपछाँव.
दलित कवि की
पाब्लो नेरुदा जैसी प्रेम कविता :
'
जिन्हें चाहा उन्हें मिलना अभी मुमकिन नहीं
सब
ईस शहर से भी दूर दूर बसने जाते हैं
इतने
टूटे हुए ख्वाबों को ले के जीते हैं
आज
हम ही हमें बिखरे से नज़र आते हैं '
'
दीप जलते रहें,हम पिघलते रहें
खैर
आंसु की महेफिल तो चलती रही '
मराठी कवि नारायण सुर्वे की एक प्रसिध्ध रचना है : चाँद में मुझे रोटी दिखती
है.गुजराती दलित कवि नीरव पटेल को न्यूटन का जमीन पर गीरता सेब देखकर खाने का ख़याल
आता है.दलित तूरी के भूंगल (बाजे) में हरीश मंगलम को गालियाँ सुनाई पड़ती हैं. यह
सब दलित कविता का नव विश्व है,न भूतो,न भविष्यति.....
कवि माँ से कहते है राम की तरह : 'माँ,मुझे चन्दा दे दे.' माँ कहती है,'यहाँ
रोटी की रामायण है और चन्दा कहाँ से लाऊँ?राजा दशरथ के घर जन्मे राम को चंद्र पाने
का मन होता है,जब कि दलित राम को रोटी की खींचातान है !
'‘माँ
मुझे चंदा दे दे’ की तू जिद छोड़ राम,
यंहां
रोटी की भी है खींचातान.'
'कोई बात बने'में
कवि साहिल में से ग़ालिब की खुशबू आती है :
' मेरी दीवानगी का चर्चा है
ठीक मगर,
थोड़े मदहोश तो हो जाओ,कोई बात बने.'
पर देखें आखिर
में मतला में कवि कैसी पलटी लगाते हैं :
ढेर
सा डर है,झिझक भी है,झुझलाहट पर,
सितम के सामने हो जाओ,कोई बात बने.
सितम का सामना
करो तो डर लगेगा ! कवि का आक्रोश विस्फोटित होता है यहाँ : ' हम ने सीने में समंदर को छुपा रक्खा है,
एक
ज्वाला को कलेजे में दबा रक्खा है.'
' जो मेरे
देश की मिट्टी को बेचते हैं ‘साहिल’,
हम ने
उन्हीं को तो गद्दी पे बिठा रक्खा है.'
कवि की व्यथा :
हम
बरसते रहें बादल की तरह जी भर के
खेत
माना था जिन्हें वो भी तो बंजर निकले
दिखाई
देते हैं खिदमत में आज कल उनकी
जुबाँ
से राम नहीं सैंकडो खंज़र निकले
हिन्दी में पता
नहीं है,पर गुजराती में 'ढ' का एक अर्थ होता है 'बुद्धु',दूसरा अस्पृश्य को 'ढेड'
कहते है' यानी ढेड का 'ढ'.कवि ने आखिर में 'ढ' गझल दी है.'ढ' वर्णमाला का १४ वां
अक्षर है :
' तन्हाइयाँ
तन्हाइयाँ तन्हाइयाँ हैं
यह
चौदवें अक्षर से सब रुस्वाइयाँ हैं
दूसरे शेर में
कवि में दालित्य प्रकट होता है :
' कैसा
बिछाया ज़ाल तू ने अय मनु कि
हम ही
नहीं पापी यहाँ परछाइयाँ हैं
मनु के जाल के
कारण दलितों की कैसी बुरी हालत हुई है :
' हम
छोड़ ना सकते ना घुलमिल भी सके हैं
दोनों
तरफ़ महसूस उन्हें कठिनाइयाँ हैं
गुजराती भाषा में संघर्ष और आन्दोलन के कवि साहिल परमार की रचनाओं का यह
हिन्दी रूपान्तर ओमप्रकाश वाल्मीकि से समृद्ध हुई हिन्दी दलित कविता में नया आयाम
खोलेगी,ऐसी श्रद्धा है.
दिनांक : १८
मई,२०१६ प्रवीण गढवी
आई.ए.एस.
आसव लोक प्रमुख,
४६६/२,सेक्टर
१, दलित साहित्य अकादमी.
गांधीनगर ३८२००१.
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