फैला हुआ आसमान
डिमडिम बजाता है.
बिखरे हुए तारें
आग लगी मिल की
व्हीसल जैसा
टिमटिमाते हैं.
रोतीं हुई आवाजों से
क्षितिज धुंधली हुई है.
इस शहर के चाँद के
टुकडें टूट रहें हैं
एक..दो..चार..दस.....बारह.
टुकडें टूट रहे हैं
इस शहर पर
उस के बोज तले
दबते जाते हैं
इस शहर के लाख लाख इन्सान
लाख लाख आंखों के कोटि कोटि सपनें
सपनों का शमशान बन रहा है यह शहर
भूख से त्रस्त अन्धेरा
अपनी चुन्गालमें
मुझे झकड़ रहा है.
गला जकड़ जाए इस से पहले
मैं बोल पाता हूँ इतना ही ;
‘होस्टेल का फ़ूड बिल
बहुत बड़ी घटना थी.’
एल..डी.एंजीनियरिंग
कोलेजके छात्रोंके फ़ूड बिलके छोटे से मामले में से १९७४ में गुजरात में नवनिर्माण
आंदोलन हुआ था.
बराबर दस साल बाद
१९८४ में शहर का अहम उधोग – बारह मिलें
बंद पड़ने के बावजूद भी कुछ भी नहीं हो
पाता – यह विवशता
है समय की.
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