Monday, February 19, 2018

इतना ही.विशेष कुछ भी नहीं.
















ऐसे तो रघु,
मेरी चाली और तेरी सोसायटी के बीच
कुछ नहीं है-
है सिर्फ़ एक दीवार.
पांच साडे पाँच फूट की दीवार.
बस इतना ही.विशेष कुछ भी नहीं.

पंद्रहवीं अगस्त या छब्बीस जनवरी को
तेरे आलिशान मकान पर झंडा लहराता है तब
‘वंदे मातरम’ और ‘जनगणमन’ के सूर
मिल की मशीनों की घुर्राहट को भेद कर
मेरे कान तक नहीं पहुँच पाते.
बस इतना ही.विशेष कुछ भी नहीं.

तेरा भाई
एरकंडीशन रूम में
रंगीन परेड और सलामी
टी.वी.पर देखता है तब
मेरा भाई
सीपोर गांव के
किसी पराये खेत में
बेगारी करता है.
इतना ही.विशेष कुछ भी नहीं.

तू तेरे बहनोई की ट्रक में बैठकर
रथयात्रा के दिन
मुठ्ठी मुंग का दाता बन कर
हर्ष मनाता था तब
मेरा पड़ोसी
टाईफोइड से चल बसी अपनी बेटी के लिये  
रो भी नहीं सका था.
उस की अश्रुग्रंथियों पर असहनीय दबाव था.
उस का चेहरा और मन दोनों तंग थे.
बलिया देव ने – भीम के लफड़े नंबर एक की पैदाइश ने
उसे रोने भी नहीं दिया था.
इतना ही.विशेष कुछ भी नहीं.

तू कृष्ण जन्माष्टमी के दिन
तेरे परिवार के साथ
कार में घूमने निकला था तब
मैं अपनी बेटी की फटी हुए फ्रोक को
थिगली लगाता था.
बेटी सयानी हुई
तब से लेकर आज तक
पांच पाँच  मेले गए,
मैं उसे खेलने के वास्ते
चाभीवाली मोटर भी नहीं ला सका हूँ.
बस इतना ही.विशेष कुछ भी नहीं. 


आरक्षण के दंगो पर
एक दिन
तेरी छत पर से
फैंके गए पत्थर ने
मेरे सर को फोड़ दिया था
और छूटी थी लहू की धारा.
उस के पीछे आई मशाल ने
मेरा घर जलाया था.
इतना ही.विशेष कुछ भी नहीं.

‘भारत मेरा देश है’ का
स्कूल में रटा गया तोतापाठ
याद आ जाता है तब मैं
ठहाके मारकर
हँस लेता हूँ.
इतना ही.  विशेष कुछ भी नहीं. 

No comments:

Post a Comment

एक ‘ढ’ गज़ल

तन्हाइयाँ तन्हाइयाँ तन्हाइयाँ हैं यह चौदवें अक्षर से सब रुस्वाइयाँ हैं कैसा बिछाया ज़ाल तू ने अय मनु कि हम ही नहीं पापी यहाँ प...