अभिमत
माना जाता है कि हिंसक
दौर की अवधि बहुत लम्बी नहीं होती.हिंसा के शिकार और हिंसा बरपानेवाले दोनों बहुत
ही जल्दी इससे निजात पाना चाहते हैं,निजात पा लेते
हैं.लेकिन,हिंसा के बारे में यह 'सामान्य राय' जातिवादी हिंसा
अपर लागू नहीं होती.यह हिंसा प्रकट और अप्रकट रूप में इतने लम्बे समय से ज़ारी है
कि इसे देखकर इसके कालातीत होने का भ्रम होता है.अनंत काल तक चलनेवाली हिंसा
व्यवस्था का अंत कब होगा ? भारतीय
उपमहाद्वीप के निवासियों के लिए यह शाश्वत सनातन प्रश्न है.
जिस समाज व्यवस्था को
अखंड.अजेय और अभेद्य माना गया उसके खिलाफ़ फुले-आम्बेडकर ने एक अभूतपूर्व ऐतिहासिक
मुहिम छेड़ी.वर्ण-जाति की हिंसा से त्रस्त समाज को इन्हों ने विश्वास दिलाया कि
इसका उन्मूलन किया जा सकता है.इसका उन्मूलन जरुरी है.इसके उन्मूलन के बिना मानवता
कराहती रहेगी.यह व्यवस्था अमानवीय ही नहीं,अप्राकृतिक भी
है.अप्राकृतिक व्यवस्था को हटाना सामाजिक स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य है.जब तक वर्ण
विधान चलेगा तब तक रुग्णता बनी रहेगी.रोगी काया चित्त्तको भी बीमार बना देती है.इस बीमार चित्त,विकृत चेतना का यथाशीघ्र उपचार होना जरुरी है.अम्बेडकर के
विचार-दर्शन और आन्दोलन से प्रेरणा लेकर उनके परिनिर्वाण के डेढ़ दशक बाद
महाराष्ट्र की जमीन पर एक शोला दिखायी पड़ा.इसे दलित पेंथर कहते हैं.दलित पेंथर ने
पूरी उग्रता के साथ सवर्ण-वर्चस्व पर हमला बोला.हमले का माध्यम बनी कविता.इसे पहली
पीढ़ी की दलित कविता कहते हैं.आक्रामकता,अनमनीयता,उदग्र अस्मिताबोध इस कविता की पहचान है.पेंथर के अग्रणी कवि
नामदेव ढसाल के प्रथम काव्य संग्रह 'गोलपीठा' ने साहित्य जगत में ख्गाल्बली मचा दी
थी.जातिरूपी फोड़े पर 'गोलपीठा' की कविताएँ नश्तर की तरह चली थी.
साहिल परमार का यह संग्रह
पैंथर के दौर की याद ताज़ा कराता है.'प्रहार' शीर्षक से तैयार उनका काव्य संग्रह ऊंच नीच की
मानसिकता के दुर्गम द्वार पर जोरदार प्रहार करता है.कवि की भाषा जिस हिंसा के
प्रितकार में जनमी है उससे उसका तल्ख़ होना स्वाभाविक ही है.पैंथर आन्दोलन की
शुरुआत जब हुई थी तब से समाज में बहुत बदलाव आ चुके हैं.नहीं बदली है तो वह है
जातिवादी मानसिकता.अब भी दलित बस्तियों पर हमले होतेब हैं;लूटपाट के बाद उसे आग के हवाले कर दिया जाता है.बलात्कार की
सर्वाधिक शिकार दलित स्त्रियाँ होतीं हैं.दलित बच्चों की पढ़ाई तथाकथित ऊँची जाति
के लोगों को अब भी सह्य-स्वीकार्य नहीं है.दलित समुदाय के लोग स्वाभिमान से जिएं
यह छूट देना उन्हें गवारा नहींसाहिल परमार की कविताओं में मिलनेवाला तीखापन इसीलिए
खटकता नहीं.संवेदनशील कवि की प्रतिक्रिया इस तरह भी व्यक्त हो सकती है.
साहिल हिन्दू धर्म
ग्रंथों पर प्रहार करते हैं.वे उस सवर्ण षड्यंत्र को पहचान लेते हैं जो छ: दिसम्बर
को भारतीय इतिहास का काला दिन साबित करने के लिए बाबरी मस्जिद गिराने का कुकर्म
करता हाई.बाबा साहब की मूर्तियों का अपमान देश में जहाँ-तहाँ अक्सर होता ही रहता
अहि.दलित अस्मिता को नीचा दिखाने,कुचलने का कोई
मौका इस मुल्क का पारम्परिक समाज छोड़ता नहीं.साहिल इसीलिए बड़े ऊँचे तेवर में कह्ते
हैं -
' उसके प्रति
छूताछूत बंद कर
वरना
आनेवाले कल का इतिहास
खडा खडा
तेरे मुंह में पिशाब
की धार करेगा.......'
साहिल उद्बोधन के कवि
हैं.अपने लोगों को जगाना उनका कवि-कर्म है.वे समाज के जातिवादी चरित्र को 'इतना ही,विशेष कुछ भी
नहीं' जैसी कविता में उदघाटित करते हैं.बहुत वक्र
स्वर में साहिल बताते हैं -
'आरक्षण के दंगों
में
एक दिन
तेरी छत पर से
फेंके गए पत्थर ने
मेरे सर को फोड़ दिया था
और छूटी थी लहू की धारा
उसके पीछे आई मशाल ने
मेरा घर जलाया था.
इतना ही.विशेष कुछ भी नहीं.
प्रेम कविता साहिल के
रचनाकार व्यक्तित्व का उल्लेखनीय पक्ष है.वे पाने प्रेम को घिसी-पिटी शदावली में
व्यक्त नहीं करना चाहते हैं.वे अभिव्यक्ति में एक टटकापन चाह्तेभैन,भाविक नवीनता तलाशते हैं.उनके अनुभव अगर भिन्न हैं तो उनके
कहने का तेवर अलग होहा ही.इन्हें रवायती प्रेमकविता नहीं कहा जा सकता.इनकी
विलक्षणता की पहचान जरुरी है -
'प्रिय
तेरे बारे में यह कविता लिखते हुए
में तेरे दांतों को अनार की कली की उपमा
नहीं दे सकूंगा.
मैं तो कहूंगा कि
मक्के के भुट्टे में
असमान रूप से चिपके
छोटे बड़े दानों की तरह हैं तेरे दांत.
प्रियतमा ( या पत्नी ) को
संबोधित इस कवितांश को भी देखा जा सकता है -
जब तुम मेरेपास होती हो
मेरी झुग्गी बं जाती है
एक विराट महालय
और मच्छरों की गुनगुनाहट
रचती है कई तर्ज
जिसकी मिठास
कोल्हापुरी गुड के दडबे से भी
ज्यादा होती है.
साहिल परमार का यह संग्रह
दलित कविता में उल्लेखनीय योगदान है.उनकी बेचैनी को शब्दों के जरिए महसूस किया
जाएगा.पाठक-गण इस संग्रह का पूरे उत्साह से स्वागत करेंगे,ऐसी उम्मीद करता हूँ.
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