Monday, February 19, 2018

सम भोग




हम
सदियों से चाहते हैं
सम भोग ...सम्भोग ....संभोग.
हमारी माँग एक ही रही है
सम भोग ......सम्भोग.....संभोग
[क्यों भडकता है
मेरी काली चमड़ी देख कर
भडकता हो ऐसे ]
यह कोई कूड़े करवट से निकाला गया शब्द नहीं है,
तेरी देवभाषा ने दिया हुआ शब्द है.
उसकी आभा को
कुचल डाला है तूने
[हमारी आभा को
कुचल दिया है ऐसे ही]
तू ने तो पवित्र-पापी के
स्पृश्य-अस्पृश्य के भेद में
उसे भी नहीं छोड़ा है.
[बेचारा कुत्सित माना गया
अस्पृश्य माना गया
हमारी तरह]

पर अब हम अस्पृश्यों ने
अस्पृश्य शब्दों का भी साथ लिया है.
अब तक
हम पाठ करते रहें
तू ने ही
पवित्र और स्पृश्य
बनाए हुए शब्दों का.
फ़िर भी हमारी पीड़ा
हमारी व्यथा
हमारे आर्तनाद
पहुँचे तेरे कानों तक ?


हम ने ढाल बनकर
तेरी रक्षा की
तो भी  तू
हमारी पी ठ्में
भौंकता रहा खंजर.

हम ने खेत में
 खूनपसीना सींचा
और तू ने हमें निकाला
गाँव से बाहर

हम ने दिया भोग
तू ने भोगा भोग
तू ने दिया भोग कभी ?
हम ने भोगा भोग कभी ?

पर अब
एटलस करवट बदलता है.
उत्तर अब दक्षिण
और दक्षिण अब उत्तर
हो रहा है.
हमारी मर्जी
अब तीव्र बनी है,
हमारी माँग अब बुलंद बनी है.
हम चाहते हैं
सम भोग – समान बलिदान,सामान त्याग.
सम भोग – समान अधिकार,समान प्राप्ति.

अब चमड़ा पकाते हुए हमारे कुण्ड
शब्दों को भी पकाने लगे हैं.
हमारा कापड बुनता करघा
शब्दों को भी  बुनने लगा है.
अब हमारे झाडू
शब्दों पर पड़ी धूल को
झाड कर साफ़ करने लगे हैं.
हमारी भठ्ठी चालू हुई है.
उस में से प्रकट होते शब्दों की आभा को पहचान
उस के प्रति छूताछूत बंद कर
वरना
आनेवाले कल का इतिहास
खड़ा खड़ा
तेरे मुंह में
पिशाब की धार करेगा.........

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