मेरी कविता
अपने गंदे कपड़ों में
मेरे जैसी ही कंगाल
अभी भी चाहती है स्वीकृति
मेगेझीन के रेशमी चिकने पन्नों की
अब भी वक्र दृष्टी से देखी गयी
अभी भी अनदेखी
अनपढ़ी
पडी है मूर्छित
मेरी कविता.
मेरी कविता
मेरे जैसी ही गँवार
खड़ी है भारतीय साहित्य के बरामदे में
अब भी अन्य परिधान के लिए
प्रतिबंधित
मेरे गुस्सैल चेहरे जैसी
तप्त लाल
खड़ी है दूर
अकेली बहिष्कृत
मेरी कविता.
मेरी कविता
मेरे जैसी अर्ध पागल
घुमती है चाली में,
मोहल्लेमें और चोराहों पर
दूरदराज के अविकसित गाँव जैसी
नोकरशाह बाबु संस्कृति से
उपेक्षित मेरी कविता .
मेरी कविता
मेरी जीभ जैसी ही
अभद्र,असभ्य,
मेरे जैसी ही
अस्पृश्य
सभ्य सुसंकृत
साफ़सुथरे समीक्षकों द्वारा
रख दी गयी बाजु पर
भुलाई हुई
धक्काई हुई मेरी कविता
No comments:
Post a Comment