मुँहसवेरा होते ही
मैं बिछाने में
कटकर तितरबितर पड़े
मेरे जिस्म के हिस्सों को
एसेम्बल कर के
शुरू करता हूँ
कूच.
सुबह की पहली किरण
मुझे घायल करने
हर बार आमादा होती है.
उस से छिदता, बिंधता
लहुलुहान फ़िर भी
जारी रखता हूँ में अपना सफ़र
क्यों कि मुझे मालूम है कि
हर दिन यहाँ
एक जबरदस्त मुकाबला है.
दोपहर की हवा
भारीभरकम घन की तरह
वार करती है मेरे शानों पर
और इस महानगर की भीड् में
से
शाम को कर देता हूँ मैं
अपने आप को अलग.
इन्सान होने के माईने
समज में आते हैं मुझे
पूरी तरह
बुरी तरह
फ़िर भी
मेरी ही तरह
तितरबितर हुए ये इन्सान
मुझे नहीं मानते हैं
इन्सान
तब मुझे होता है कि
मैं दिन ढलते ही
बिस्तर में
तितरबितर पड़े
मेरे जिस्म के
हिस्सों को
ऐसेम्बल तो हरगीज नहीं करूँगा
फ़िर भी
मुँहसवेरा होते ही.....
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