Monday, February 19, 2018

प्रतिरुपों की खोज


















तू खीचड़ी पकाने के लिए
दालचावल बिनती है
या आटा पीसने के लिए
गेंहू बिनती है
इतनी चौकसी से
मैं लिखने बैठा हूँ कविता
प्रिय तेरे लिए.

सोचता हूँ तेरे चेहरे को
कौनसी उपमा दूं ?
बहुत काम आ चुका है चाँद –
अष्टमी का भी और पूनम का भी.
फूल भी ताजा  नहीं रहा है एक भी.
फ़िर,मुझे तो ढूँढने हैं ऐसे शब्द
जिसे तू और मैं  पहचानते हों,
जीते हों
और इस लिए
मैं कहूँगा कि
मिर्च पिसने के दस्ते जैसा
भले ही लम्बगोल हो तेरा चेहरा
या फ़िर
किसी अनाड़ी कारीगर ने
टांक टांककर ठोंक ठोंक कर
बनाये हुए खरल जैसा
चेचक के  दाग से भरा भले हो तेरा चेहरा
मैं इसे चाहता हूँ.
चसोचस चोखता हूँ.

 चाय बनाते वक्त
जितनी चौकसी तू बरतती है
चाय में चिनी के बदले
पिसा हुआ नमक न  डल जाये इसकी
उतनी ही चौकसी में बरतूँगा
प्रिय
तेरे बारे में यह कविता लिखते हुए.
इसीलिये मैं तेरे दांतों को
अनार की कलि की  उपमा
नहीं दे सकूंगा.
मैं तो कहूँगा कि
मक्के के भुट्टे में
असमान रूप से चिपके
छोटे बड़े दानों की तरह है तेरे दाँत.

तेरी आंखो को
मैं हिरनी के नैन
या मस्ती के जाम
नहीं कह सकूंगा.
मैं तो कहूँगा कि
बचपन में
चोटबिलीस खेलते वक्त
दीवार से टकराकर
दो टुकड़ों में बंट जाती
गोटी के
चमकीले टुकड़ों जैसी हैं
तेरी आँखें.

मेरे पाँच पाँच बच्चों को
जन्म देकर
बिनसी हुई  तेरी देह को
मैं बरस चुकी बदली
या कुम्हलाया हुआ फूल
या आमकी सोखी गयी गुट्ली तो
हरगीज न कहूँगा.
मैं कहूँगा तो यही कि
पटेलों के बिगड़ैल लडकों ने
झाड़ी हुई बेरी जैसी
तेरी देह
अब भी देती है मुझे मिठास
रंगरोगान थोड़े थोड़े उखड़ी हुई
पुरानी गुडिया भी
छोटे बच्चे को
दे सकती है इतना आनंद.

तेरे रंग को
मैं कृष्ण की तरह काला
या नीले आकाश जैसा तो
हरगीज न कह सकूंगा.
मैं तो कहूँगा कि
माँ ने सिगड़ी खाली करते वक्त
एकदम नीचे से
नीकलती हुई खाक जैसा है तेरा रंग
या फ़िर
माँ ने खरीदे हुए
कम कीमत के गुड की वजह से
चखने में तो बराबर
पर दिखने में ज़रा श्याम
हलुए जैसा है तेरा रंग.

तेरे सुभाव को
मैं गुलाब जैसा गुलाबी
या बर्फी जैसा मीठा तो
कह नहीं सकूंगा.
मैं तो कहूँगा कि
तेरा स्वभाव है
दारु पीते समय
खाई जाती चानी जैसा
या फ़िर ठंडी छास रगडकर
मौज से खाए जाते
डूवे जैसा.

तेरे प्रेम को मैं गंगाकी मौज
या जमना की धारा तो
हरगीज न कह सकूंगा.
मैं तो कहूँगा कि
जाड़ेकी भोर को
गर्म गर्म हवा के साथ
उतनी ही खलबली से
धंसते हुए
म्यूनिसिपलिटी के नल के
 खुरदरे पानी जैसा  
गर्माहट भरा
और ताजगीदाता है तेरा प्रेम
या फ़िर
मध्य रात्रि की मिठास को
आहिस्ता आहिस्ता
आम की तरह
नज़ाकत से घौलते हाथ जैसा
नरम और देखभालभरा है तेरा प्रेम.

हाँ प्रिय, मैं लिखता हूँ तेरे बारे में कविता
इसलिए रखूँगा इतना धैर्य
जितना धैर्य तू
रहू मच्छी की खाल को
हटाते वक्त रखती है
या फ़िर ठंडी सुबह में
भूसे की सिगड़ी पर
बाजरी की रोटी सेंकते वक्त रखती है.

हालांकि ऐसा है फ़िर भी
प्रलंब समागम से जैसे
अकुला जाती है तू
वैसे ही मैं भी
अकुला गया हूँ
यह कविता लिखते वक्त
और फ़िर
पानी ज़रा ज्यादा ड़ाल दिया गया हो
और सोरबा
ज़रा ज्यादा हो गया हो
तो भी
तू उतार देती है
कभी उतावली से
चूल्हे पर चढ़ती हुई तरकारी
बस उतनी ही उतावली से
मैं रख देता हूँ
भावक के आगे
प्रिय
तेरे बारे में लिखी गयी
यह कविता.

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