Monday, February 19, 2018

मैं तुझे भली भांति पहचान चुकी हूँ




तू ही

मेरी जन्घाओं में

लिपट कर मजा लेता रहा
और फ़िर मुझे
नरक की खान कहा.हाँ, तू ही.
तुझे मैं
भली भांती पहचान चुकी हूँ.

‘यत्र नार्यस्तु’ की
घिसीपिटी केसेट बजाते बजाते
तू ही मेरी छाती का दूध
तेरे कठोर हाथों से
निचोड़ता रहा.
हाँ,तू ही.हरामखोर,
तुझे मैं
भलीभांती पहचान चुकी हूँ.

मेरे पाँव की एडी देखकर
घांस खाने विह्वल
गरजवान भैंसे जैसी तेरी बुध्धि ने
मुझे बुध्धिहीन जाहिर किया
पर...
तेरी बुध्धि तो
मेरे पाँव की एडी पर है.
अक्लके कुंद,
तुझे मैं
भलीभांती पहचान चुकी हूँ


होगा तेरे पास भी हृदय जैसा
पर उस में भावनाओं के
हरेभरे पेड के झुण्ड तो नहीं होगे.
इसलिए ही तू
न देखे नींद या थकान
ताव या घांव
लेता रहे बस क्रीडाके दांव.
पिशाची पत्थर,
 तुझे मैं
भलीभांती पहचान चुकी हूँ.

चुल्हे के धुए से दम घोंटती 
चार दीवारी को लांघकर
बाहर नीकली मेरी सांसों को
तू तौलता है कलदार से.
स्वातंत्र्यकी छलना से
रोमांचित उन सांसो को कैद कर के
तू फिल्माता है टी.वी.पर ,
थिएटर के बड़े पर्दों पर ,
शोरुम में और
पसीने से गंधीली
तेरी बगल जैसी
संकरी गलियों में.
तू दसकी पत्ती के बदलेमें 
रौदता है जिसे
वह मेरा जिस्म नहीं है,
मेरी सूखी आंखों के
भीगे भीगे सपनें हैं.
सौदेबाज सूअर ,
तुझे मैं
भलीभांती पहचान चुकी हूँ.

सागर की उछ्लती मौजों की तरह
मैं उछलती रही,
तुझे भिगोती रही,
सर पटकती रही
और फना होती रही
पर तू पत्थर सख्त अहम का
पिघला ही नहीं,
पिघला ही नहीं
पर अब
मैं तुझे पिघालना नहीं चाहती.
मेरी हर नब्ज़ में
उछलते लाल लाल खून की
ठपाटे पर  ठपाटे
ठपाटे पर ठपाटे मार के
करने हैं तेरे अहं के चूरे
चूर चूर करने हैं
उन खडकों को
जो सदीयों से तूने
तेरे सीने में रचाए हैं.
नीच,अधम,दूधहराम
अब तो मैं तुझे
पूरी तरह
पहचान चुकी हूँ.

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