Monday, February 19, 2018

फीर भी सखे !




सुबहा से ले के शाम,करतीं हैं कितने काम
फीर भी सखे,हम तो अबला ठहरीं.

वो कहते हैं हमारे हाथ में नज़ाकत है ,
बिना देखे कि क्या क्या झेलते ये आफत हैं,
हमारे हाथ बर्फ़ जैसी ठण्ड से हैं लड़े,
हमारे हाथ गर्मियों की आंच से हैं पले,
कभी जलते कभी ठिठुरते सितारों को लिए थाम. सुबहा से .....


वो कहते हैं हमारा दिल नहीं है,चूहा हैं ,
बिना देखे कि जुल्म उस पे क्या क्या हुआ है,
हमने इस्पाती आफतों से टक्करें लीं हैं,
रूठे मझधार से किनारे कश्तियाँ कीं हैं,
सर पे आकाश नहीं,टांपता रहता है दुःख तमाम.  सुबहा से .....

वो कहते हैं हमारे पाँव छोटे छोटे हैं,
बिना देखे कि बोज धरती का ये ढोते हैं,
हमारे पाँव से रोशन बना घर का चेहरा,
हमारे पाँव से ही बाग बनें हर सेहरा,
ये चलें तब तो उन्हें मिल सकीं हैं मंजिलें तमाम. सुबहा से ......


वो कहते हैं की हम तो काम कुछ नहीं करतीं,
फ़िर भी हम बिन तो उन की दाल भी नहीं गलतीं,
चंद ही रोज में घरकाम से थक जाते हैं वो,
सारे घर का है हम पे बोज देख पाते हैं वो ?
उन के सिर्फ़ हाथ हैं,लिंग हैं,आँखों का नहीं नाम.
सुबहा से लेके शाम,करतीं हैं कितने काम,
फ़िर भी सखे,हम तो अबला ठहरीं.

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